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दिनांक 10 फरवरी 2025 को श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर रायगंज (उत्तरी), गोरखपुर में प्रथम स्थापना दिवस का आयोजन

शनिवार, 21 अगस्त 2021

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन का त्यौहार प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाते हैं। इसलिए इसे राखी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व भाई-बहन के प्रेम का उत्सव है। इस दिन बहनें भाइयों की समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर रंग-बिरंगी राखियाँ बांधती हैं, वहीं भाई बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं। कुछ क्षेत्रों में इस पर्व को राखी भी कहते हैं। यह सबसे बड़े हिन्दू त्योहारों में से एक है।

रक्षाबंधन मुहूर्त

इस वर्ष यानी 22.08.2021 

राखी बांधने का मुहूर्त - 06:14:56 से 17:33:39 तक

अवधि - 11 घंटे 18 मिनट

रक्षाबंधन अपराह्न मुहूर्त - 13:41:54 से 16:17:59 तक

रक्षा बंधन का पर्व श्रावण मास में उस दिन मनाया जाता है जिस दिन पूर्णिमा अपराह्ण काल में पड़ रही हो। हालाँकि आगे दिए इन नियमों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है–

यदि पूर्णिमा के दौरान अपराह्ण काल में भद्रा हो तो रक्षाबन्धन नहीं मनाना चाहिए। ऐसे में यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरुआती तीन मुहूर्तों में हो, तो पर्व के सारे विधि-विधान अगले दिन के अपराह्ण काल में करने चाहिए।

लेकिन यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरुआती 3 मुहूर्तों में न हो तो रक्षा बंधन को पहले ही दिन भद्रा के बाद प्रदोष काल के उत्तरार्ध में मना सकते हैं।

यद्यपि पंजाब आदि कुछ क्षेत्रों में अपराह्ण काल को अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है, इसलिए वहाँ आम तौर पर मध्याह्न काल से पहले राखी का त्यौहार मनाने का चलन है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार भद्रा होने पर रक्षाबंधन मनाने का पूरी तरह निषेध है, चाहे कोई भी स्थिति क्यों न हो।

ग्रहण सूतक या संक्रान्ति होने पर यह पर्व बिना किसी निषेध के मनाया जाता है।

राखी बांधने की विधि

व्रत रखें - रक्षाबंधन के दिन जब तक भाई की कलाई पर राखी न बांध लें, तब तक आप व्रत रखें। कहा जाता है कि पारंपरिक विधि यही है।

पूजा की थाली की विशेष विधि - राखी बांधने से पहले आप पूजा की थाली को सही तरह से सजाएं। पूजा की हर सामग्री का रखें ख्याल। थाली में दही, अक्षत, फूल, दीपक, रोली, मिठाई और राखी अवश्य रखें।

सर्वप्रथम दही से करें तिलक - दही को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। पूजा-पाठ इसके बिना असंभव है। भाई को राखी बांधने से पहले उसके माथे पर दही का तिलक लगाएं।

फिर रोली से करें तिलक - दही से भाई का तिलक करने के बाद आप उसके माथे पर रोली का टिका लगाएं।

अक्षत और फूल - रोली के तिलक के बाद भाई पर अक्षत और फूल चढाएं। आंखें बंद करके इसी समय अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करें।

राखी बांधकर आरती करें - अब अपने भाई के दाहिने हाथ की कलाई पर राखी बांधकर उसकी आरती उतारें और उसे मिठाई खिलाएं।

राखी बांधने की सही जगह - राखी बांधते समय इस बात का ध्यान दें कि बेड या सोफे पर बैठकर राखी बिल्कुल न बांधें। बेहतर होगा कि लकड़ी के पीढ़े (छोटा पाटला) पर बैठकर और भाई को बिठाकर ही राखी बांधें। भाई का मुख पूर्व दिशा की ओर रखें। राखी बांधते समय आपका मुंह पश्चिम दिशा की तरफ हो।

राखी बांधते समय पढ़ें यह मंत्र - अगर राखी बांधते समय बहनें रक्षा सूत्र पढ़ती हैं तो यह बेहद ही शुभ होता है। इस रक्षा सूत्र का वर्णन महाभारत में भी आता है।

ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वामपि प्रति बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।

भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी की कथा

यह पौराणिक कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में शिशुपाल भी उपस्थित हुआ। यज्ञ के दौरान शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण का अपमान किया और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया।

शिशुपाल का वध कर लौटते समय सुदर्शन चक्र से श्रीकृष्ण की उंगली थोड़ी कट गई और उससे रक्त बह निकला। तब द्रौपदी ने अपने साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण की उंगली पर बांधी। उस समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को वचन दिया कि वह इस वस्त्र के एक-एक धागे का ऋण चुकायेंगे।

द्युतक्रीड़ा के समय जब कौरवों ने द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया, तब श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाते हुए चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज की रक्षा की। जिस दिन द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की उंगली में अपना पल्लू बांधा था, वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था और वह दिन रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है।

बुधवार, 11 अगस्त 2021

श्री विश्वकर्मा जी की कथा

पहला अध्याय

एक समय अनेक ऋषिगण धर्मक्षेत्र में एकत्र हुए और वहां धर्म के तत्व जानने वाले सूत जी से ऋषि कहने लगें - हे पुराण के मर्मज्ञ, महात्मने, आप हमारे ऊपर अत्यंत कृपा करके हमारे इस अचानक उत्पन्न हुए सशंय का नाश कीजिए। हमने सर्वव्यापक विष्णु के अनेक रूप सुने हैं, उनमें से कौन सा रूप सर्वश्रेष्ठ है, यह हमें बताइये। हे महात्मा, मुनियों, तुमने संसार के कल्याण के लिए यह सर्वशुभ काम करने वाला बडा प्रश्न किया है, जो तुमने यह संसार के हित के लिए प्रश्न किया है, अतएव मैं तुम्हारे लिए सब जगत् पालक परम पूज्य भगवान विष्णु के महाअद्भुत रूप का वर्णन करूंगा। हे तपस्वियों, उस परमात्मा के अनन्त रूप हैं, उनमें जो अनन्त श्रेष्ठ है, उस रूप को अंदर से सुनो। उस दिव्य रूप के स्मरणमात्र से महापातकी मनुष्य भी पाप से छूट जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रश्न को संसार के कल्याण के लिए क्षीरसमुद्र में लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से एक बार पूछा था।

लक्ष्मी कहने लगीं - हे जगन्नाथ। आपके महान् अनेक रूपों को भक्तमनुष्य भक्तियुक्त होकर पृथ्वी पर पूजते रहते हैं। हे प्रिय। क्या वे रूप सब समान ही हैं या उनमें गौण और मुख्य किसी प्रकार का भेद है। विष्णु भगवान बोले– हे प्रिय, जब मैं समस्त ब्रह्माण्ड को आत्मा में सहंत करके स्वानुभव रूप से योगमाया के स्थित होता हूँ, तब मैं एक ही बहुरूप धारण करूं, इस प्रकार इच्छा करता हुआ अपनी माया के वश में हुआ। जीवों को कर्मभोग के लिए क्षणमात्र में असंख्य ब्रह्मलोकादि लोकों को जिस रूप से रचता हूँ, हे देवी, उस रूप को मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान से सुनों।

हे देवी, मैं यहां अद्भुत सब ओर तेज से व्याप्त अनेक सूर्यों की चमक से अधिक चमकने वाले विश्वकर्मा रूप को धारण करता हूँ, और उनके अनन्तर मनुष्य सृष्टि करने की कामना करता हुआ सर्वप्रथम पुण्यात्मा तपस्वी ब्रह्म को रचता हूँ। उस ब्रह्मा की स्तुति यज्ञ और गान के प्रतिपादन करने वाले ऋग, यजुः और सम की अच्छी प्रकार उपदेश देता हूँ। इसी प्रकार शिल्प विद्या प्रतिपादक अथर्ववेद भी ब्रह्मा को प्रदान करता हूँ। यह वही वेद है जिससे शिल्पी लोगों ने शिल्प निकाल कर अनेक वस्तुओं की रचना की है। हे देवी, मेरे अनेक रूपों में यह विश्वकर्मा रूप मुख्य है। यही रूप है जिससे सारी सृष्टि क्षणमात्र में उत्पन्न होती है। इस विश्वकर्मा रूप परमात्मा के अद्भुत रूप का जो क्षणमात्र भी ध्यान करता है, उसके समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं। जो शिल्पी श्री विश्वकर्मा के प्रोज्जवल दिव्य रूप का ध्यान से चिंतन करता है, उसके समस्त दुःख विक्षीर्ण हो जाते हैं।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का पहला अध्याय समाप्त।

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दूसरा अध्याय

सूत जी कहने लगे कि हे ऋषियों, इस प्रकार लक्ष्मी जी को अपने दिव्य रुप का वर्णन करके त्रिलोक्य पति भगवान विष्णु चुप हो गये। ऋषि लोग बोले-सर्वधर्म के जानने वाले, महाराज सूत जी, आपने यह दिव्य लक्ष्मी और भगवान विष्णु का दिव्य संवाद कैसे जाना। यह भगवान विष्णु को दिव्य विश्वकर्मा रूप किस प्रकार संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और कैसे संसार ने इस रूप को जाना। सूत जी बोले, हे मुनियो, सुनो – जिस प्रकार मनुष्यों को कामना का देने वाला, यह समाचार मेरे कर्णगोचर है। एक महर्षि अंगिरा नाम वाले हुए हैं, जिन्होंने हिमालय पर्वत के समीप गंगा तट पर बडा भारी तप किया था। वर्षा ऋतु में तो आवरण रहित स्थान में, शीत काल में शीतल जल में, ग्रीष्म काल में धूप में बैठकर वह अंगिरा मुनि तप करने लगे। तप करते-करते भी उन ऋषि का मन सुखी नहीं था और इधर-उधर इस प्रकार दौडता था कि जैसे मृग इधर-उधर भागता है।

तभी उस समय अचानक आकाशवाणी हुई कि हे तपोधन, तू वृथा श्रम करता है, लक्ष्य से च्युत हुआ बाण कैसे अपने लक्ष्य को बेध सकता है, वही तेरी गति हो गई है और तू लोक में उपवास को प्राप्त हो रहा है। उत्पत्ति स्थिति संहार का करने वाला सबको अभीष्ट का सिद्धकर्ता, महातेजस्वी विश्वकर्मा संसार में प्रसिद्ध है। उसका पंचमुख और दशबाहु वाला, महादिव्य रूप सरस्वती और लक्ष्मी से पूजित है। उसका तू दिन-रात ध्यान कर। इस रुप का स्वयं हरि ने क्षीर समुद्र में उपदेश दिया है। आज भी उनके ध्यान से मेरे रोमांच खडे होते हैं।

अमावस्या के दिन सब कामों को छोडकर व्रत का आचरण कर और उसी दिन विधि पूर्वक विश्वकर्मा जी की पूजा कर। इस प्रकार आकाश को गूँजा देने वाली वाणी को सुनकर अंगिरा मुनि को बडा विस्मय हुआ और वे भगवान का ध्यान करने लगे। श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान करते समय उनके चित्त में शिल्पज्ञान का धारक, अर्थ सहित अथर्ववेद प्रविष्ट हुआ। उन तत्वज्ञ अंगिरा मुनि ने विमान रचना आदि की। अनेक शिल्प विद्याओं का रस अथर्ववेद के ज्ञान से आविर्भाव किया। यह संसार श्री विश्वकर्मा भगवान की कृपा से ही सुखी है, क्योंकि उनके बताये ज्ञान से ही आवश्यक यानादि जगत् बनाता है। तभी से श्री विश्वकर्मा जी का महारूप संसार में प्रसिद्ध हुआ है। परम्परा से आये हुए इस कथानक ने मेरे कानों को भी पवित्र किया है। हे ऋषियों, इस परम रहस्य को जो मनुष्य श्रवण करेंगे, उनके लिए श्रवणमात्र से ही ज्ञान प्राप्ति हो जायेगी। यह महाज्योतिः रूप है जो संसार का उपकारक है, वह मनुष्य कृतघ्न और पापी है जो इस रूप का ध्यान नही करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का दूसरा अध्याय समाप्त।

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तीसरा अध्याय

हे महाराज, आपसे कहे हुए श्री विश्वकर्मा के चरित्र को श्रवण करते हुए हमारे चित्त की तृप्ति नहीं होती है, जैसे अमृत के पान करने से देवताओं की तृप्ति नहीं होती है। अब भी श्री विश्वकर्मा जी के सच्चरित्र के श्रवण की इच्छा इस प्रकार बढ़ती जा रही है जैसे हवा से बार-बार अग्नि बढ़ती जाती है। सूत जी कहने लगे- हे मुनि श्रेष्ठों, एकाग्र मन से तुम जगत्पूज्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, श्री विश्वकर्मा जी का दिव्य आख्यान सुनों।

प्राचीन काल में एक प्रमंगद नाम का राजा हुआ, जो अपनी प्रजा को संतान से समान पालता था औऱ सब धर्म के कामों में बिल्कुल प्रमाद नहीं किया करता था। वह अपनी प्रजा का स्नेह से शासन करता था और कभी भी दण्ड से प्रजा का दमन नहीं करता था। दरिद्रता से आकांत हुए मनुष्य मेरा शासन मानेंगे, यह उसकी नीति नहीं थी, अतएव वह राजा सदा प्रजा की वृद्धि के लिए यत्न करता था, उसका राज्य कृतघ्न और दुष्टों के अभाव के कारण सुखी था। उस राजा की कमल के समान नेत्र वाली, साक्षात सती के समान सती, विदुषी, धर्म, कर्म, व्रत परायण कमला नामक भार्या थी। कभी दैवयोग से उस राजा के शरीर में दारूण कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया। बार-बार चिकित्सा किया हुआ परन्तु वह रोग स्वरूप  शांत न हुआ। उस रोग की पीड़ा से पीडि़त राजा बड़ा व्याकुल होने लगा।

ऋषि कहने लगे - हे सुदर्शन। सूत। यह पाप रोग धर्म से पृथ्वी पालन करने वाले महात्मा को कैसे हुआ। यदि इस प्रकार धर्मात्माओं को भी रोग उत्पन्न हो जाता है, तो फिर धर्म-कर्म में कौन विश्वास करेगा। सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों । उस राजा ने पूर्वजन्म में स्वार्थान्ध होकर यह उपदेश दिया था कि यह संसार अनादि है, इसका कर्त्ता कोई विश्वकर्मा नहीं है यह इस कारण लोगों की वंचता करता फिरता था और नास्तिक मत का प्रचारक था। आप जानते हो यदि कर्मो के फल का देने वाला विश्वकर्मा परमात्मा न हो तो उपकार का कर्ता उपकृत मनुष्य द्वारा मृत्यु के अनन्तर दिये आशीर्वादों से उत्पन्न पुण्य फल को कैसे प्राप्त कर सकता है। जब परोपकारी को अपने पुण्य का फल मिल ही न सकेगा तो क्यों कोई किसी का उपकार करेगा और जब कोई किसी का उपकार ही नहीं करेगा तो संसार का उच्छेद (नाश) हो जाएगा। इसलिए नास्तिक पाखण्डी की दुर्दशा अवश्य होती है। अनेक जन्मों के पाप-पुण्य कर्म एक जन्म में ही उसका फल नहीं देते हैं, अतः उस जन्म में यह फल प्राप्त हुआ इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। अब मैं तुमसे आगे की कथा कहता हूँ ध्यान से सुनो।

कभी उस राजा को अधिक व्याकुल देखकर, उसके दुःख से दुःखी हुई पतिव्रता बेचारी रानी बोली - हे राजन्, बड़ा तेजस्वी हमारा कुल पुरोहित अचानक अक्षि रोग से व्याप्त हुआ और बिल्कुल अन्धा हो गया। उसे उपमन्यु पुरोहित ने अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से देखा तो यही प्रतीत हुआ कि उसे अमावस्या को व्रत कर और श्री विश्वकर्मा जी का पूजन करना चाहिए। तब से ही उस पुरोहित ने सब कामों को छोड़कर विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के दिन ब्रह्मचारी रहता और फलहार (या एक बार अन्नाहार) करता तथा धर्म चर्चा में लीन रहा करता था। उस व्रत प्रभाव के कारण पुरोहित को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई और बुढापे में भी उसकी देखने की दृष्टि नष्ट नहीं हुई। हे महाराज, मैं दीनता के साथ प्रार्थना करती हूँ कि आप भी दीनपालक श्री विश्वकर्मा की शऱण में जाइए जिससे इस दुःख से छुटकारा मिले।

राजा बोले – हे प्रिये, तुमने ठीक कहा है, इसको सुनकर मेरा चित्त बडा प्रफुल्लित हो रहा है और मुझे निश्चय सा हो रहा है कि भगवान श्री विश्वकर्मा के व्रत से रोग की अवश्य निवृत्ति होगी। क्योंकि किसी भी कार्य की सिद्धि को चित्तोत्साह प्रथम ही कह दिया करता है। सूत जी कहने लगे कि उस दिन से लेकर वह राजा प्रतिदिन श्री विश्वकर्मा जी का पूजन और वंदन करके भोजन करने लगा। अमावस्या के दिन सब कामों को छोड़कर श्री विश्वकर्मा जी का पूजन और व्रत कराना चाहिए।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का तीसरा अध्याय समाप्त।

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चौथा अध्याय

सूतजी कहने लगे – हे मुनियों, मैंने तुमको श्री विश्वकर्मा जी के अद्भुत चरितामृत का पान कराया है। अब आगे जगत को विस्मय करने वाले चरित का वर्णन करता हूँ। जगत् में धर्म के व्यवहार से चलने वाले, संतोषी कोई स्थकार और उसकी पत्नी वाराणसी पुरी में रहते थे। अपने कर्म में कुशल, बुद्धिमान वह स्थकार बडा व्याकुल हुआ। अपने पर्याप्त निर्वाह के योग्य वृत्ति की खोज में दिन-रात लगा रहता था। इस प्रकार लालच में पड़ा और सतत प्रयत्न करने के बाद भी कठिनाई से भोजन और आच्छादन ही प्राप्त कर सकता था।

उस स्थकार की स्त्री पुत्र न होने के कारण नित्य सोच करती रहती थी, कि मालूम नहीं बुढापे में कैसे निर्वाह होगा। इस प्रकार चिंतातुर वह स्त्री की इच्छा से मन्दिरों में महन्तों के पास व्याकुल होकर मन्त्र तन्त्रादि से पुत्र के अर्थ घूमने लगीं। दाढी मूंछ जिनके मुख पर बढ रही है, ऐसे ऐसे आडम्बरी म्लेच्छों (फक्कडों) के निकट भी वह दिन-रात दौड़ती फिरती थी, परन्तु उसकी कामना कहीं भी सिद्ध नहीं होती थी। काश, कुश, यमुना की बालू में जल के भ्रम से दौडती मृगी की तरह उसकी दशा हो रही थी।

कोई कोई ठग मयूरपिच्छों की बनी हुई मोरछल के झाडे़ से उसको बहकाता था और कोई भोजपत्र पर जंतर लिख कर उसको भुलावा देता था। कोई कोई धूर्त उसको कहता था कि मेरी देह में अमुक देवता आता है, वह प्रसन्न हो तेरे लिऐ वर प्रदान करेगा। यह कहकर श्वेत भस्म देकर घर भेज देता था। इस प्रकार शोच्य दशा को प्राप्त हुए दोनों स्त्री-पुरूष बडे़ दुःखी थे। उनको दुःखी देखकर एक पडोसी ब्राह्मण बोला - हे रथकार, तू क्यों इधर-उधर भटकता फिरता है, मेरी बुद्धि में तू सब तरह से मूर्ख प्रतीत होता है। तू वृथा ही शिखा और यज्ञोपवीत को धारण करता है, और तेरी भार्या भी बिल्कुल मूर्ख है। इसमें कोई संदेह नहीं। इन मिथ्या उपायों से संतान उत्पन्न नहीं हुआ करती है और न धन मिलता है, और न कुछ भी सुख प्राप्त होता है। यह तो व्यर्थ की भाग-दौड़ है। वे मनुष्य अज्ञानी हैं, जो इस प्रकार के व्यर्थ उद्योगों से अपने मनोरथ सिद्ध करना चाहते हैं। कहीं व्यर्थ उद्योग करने पर भी मनोरथ सिद्ध हुए हैं।

इन मनुष्यों से अधिक वे मूर्ख हैं, जो म्लेच्छों की फूंक की अग्नि ज्वाला से अपनी संतान का जीवन होना समझते है। म्लेच्छों की फूंक से दग्ध हुए कुमाता के पुत्रों की फिर धर्मशास्त्र के अनुकूल उत्तम बुद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती है। इसलिए तू सब वृथा के उपायों को छोड़ दे और केवल दयालु श्री विश्वकर्मा की शरण को प्राप्त हो। हे श्रेष्ठ पुरूष, विश्वकर्मा की कृपा से तेरी अवश्य सिद्धी होगी। समस्त दुःखों के नाश करने में श्री विश्वकर्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी समर्थ नहीं है।

कर्मों के फलदान देने में वह विश्वकर्मा परमेश्वर स्वतन्त्र है और आगे पीछे करके कर्मों के फल देते रहते हैं। यदि तेरी यह दुर्दशा अपने बुरे कर्मो के फल से हो रही है तो, वह विश्वकर्मा रूप ईश्वर अन्य योनियों में भी फल दे सकता है, क्योंकि वह सर्व शक्तिमान है। ईश्वर कर्मो के फलस्वरूप सुख दुःख देता है और इस सुख और दुःख के साधन उसके पास बहुत हैं। उसके पाप केवल दुःख देने के लिए निर्धन या निस्संतान बना देना ही साधन है। इसलिए तू सब कामों को छोडकर अमावस्या को व्रत कर और जितेन्द्रिय रह कर भक्ति से विश्वकर्मा भगवान का श्रवण किया कर। जितना हो सके उतना दान, अध्ययन परोपकार के कार्य आदि करता रह। इस प्रकार ब्राह्मण के वचनों को सुन कर उस रथकार के लोचन खुल गए। उस परोपकारी ब्राह्मण के चरणों को देर तक स्पर्श करके वह रथकर श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान करता हुआ अपने घर को चला गया।

उस दिन से लेकर वह धर्मात्मा, रथकार श्री विश्वकर्मा जी के चरण कमलों की भक्ति मे लीन रहने लगा। उस रथकार की उत्तम स्त्री भी सब मिथ्या उपायों को छोड़कर श्री विश्वकर्मा के उत्तम गुणों में भक्ति करने लगी। अमावस्या के दिन इस दिव्य व्रत के प्रमाण से वह दम्पत्ति धन और पुत्रों से युक्त हुई। उस रथकार का एक दिन भी बिना वृत्ति के नहीं जाता था। उसका पुत्र बडा सुशील गुणवान विद्वान और अपने माता-पिता की सुश्रुषा करने वाला हुआ। इस प्रकार सब देवों से अतिशायी श्री विश्वकर्मा के प्रभाव से यह गृहस्थ सुख भोगने लगा। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्तियुक्त चित से श्री विश्वकर्मा का ध्यान करते हैं, वे इस लोक में पुत्र- पौत्रादि से युक्त होकर सुखी होते हैं।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का चौथा अध्याय समाप्त।

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पांचवां अध्याय

ऋषियों ने कहा - हे सूत जी, विश्वकर्मा भगवान के जिन चरणों की पूजा देवता भी करते हैं, आनन्दमयी चरित्र को थोडे़ से शब्दों में सुनकर हमारी इच्छा और भी बढ़ गई। जिस प्रकार हवि से अग्नि प्रचण्ड होती जाती है, ठीक इसी प्रकार ज्यों-ज्यों हम विश्वकर्मा भगवान का चरित्र सुनते हैं त्यों-त्यों उसके सुनने की इच्छा और भी बढ़ती जाती है।

सूत जी बोले - हे मुनि लोगों, आप लोग ने विश्वकर्मा के चरित्र को सुना, जिसके सुनने से देवता भी नहीं अघाये। एक बार नैमिषारण्य में मुनि और सन्यासी लोग एकत्र हुए और अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए एक सभा की। विश्वमित्र कहने लगे कि हमें लोगों के आश्रमों में दुष्ट कर्मों के करते हुए राक्षस लोग यज्ञ करने वाले मुनियों के आस पास ही बडे़ बडे़ मनुष्य को अपना ग्रास बना लेते है। इस प्रकार यज्ञों को नष्ट करते हुए वह राक्षस लोग नर मांस भक्षक करते हैं। मातंग मुनि कहने लगे कि हमारे पूज्य पुरोहित उपमन्यु, जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित रह कर और कन्द मूल खाकर सदा धर्म कार्यों में संलग्न रहते हैं, तथा जो प्रतिदिन सारे कामों को छोड़ परमात्मा का ध्यान करते रहते हैं, तथा वह भी राक्षसों को नष्ट करने में समर्थ हो सकते हैं। (इसलिए अब हमें उनके कुकृत्यों से बचने का कोई उपाय अवश्य करना चाहिए।)

सूत जी बोले - हे ऋषियों, इस प्रकार ऋषि मुनियों के वचन सुनकर वरिष्ठ मुनि जी कहने लगे कि एक बार पहले भी ऋषि मुनियों पर इस प्रकार का कष्ट आ पड़ा था। उस समय वह सब मिलकर स्वर्ग में ब्रह्मा जी के पास गये। चतुर्भज ब्रह्मा ने पद्मासन लगाये हुए शान्त भाव से ध्यानवस्थित में उन्होंने ऋषि मुनियों को देखा जो दुख से छुटकारा देने वाले शिव रूप भगवान का ध्यान कर रहे थे। उन प्रभु जो सब का पिता है यह सब बात आदि से अन्त तक जान ली और ऋषि मुनियों को दुःख से छुटकारा पाने के लिए विश्वकर्मा भगवान की कथा का उपदेश दिया।

सूत जी बोले - हे ऋषियों, इस प्रकार उनके वचन सुनकर विश्वामित्र मुनि को बडा आश्चर्य हुआ और वह जरा निकट आ गए। तब ब्रह्मा के बताये हुए और पक्के सुख के उपाय को सुनकर विश्वामित्र मुनि मन को प्रसन्न करने वाले वचन कहने लगे। विश्वामित्र मुनि बोले कि मुनि लोगों। आप लोग वरिष्ठ जी के कथन को सुनो। वस्तुतः यह बात निश्चित ही है कि ब्रह्मा ही सब दुखों का उपाय है, इसलिए हमें इसके लिए कुछ अधिक सोच विचार की आवश्यकता नहीं। सारे पापों को दूर करने वाला और दुःखों को हटाने वाला एक ही ब्रह्मा है।

सूत जी बोले - ऋषि लोगों ने ध्यानपूर्वक सुना और गदगद वाणी से कहने लगे कि विश्वामित्र मुनि ने ठीक ही कहा है कि ब्रह्मा की ही शरण जाना उपयुक्त है। ऐसा सुन सब ऋषि-मुनियों ने स्वर्ग को प्रस्थान किया वह राक्षसों से हुई अपनी दुर्दशा ब्रह्मा को सुना सके। मुनियों के इस प्रकार कष्ट को सुनकर ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसी समय ब्रह्मा तेज से प्रकाशित अपनी आंखों को मूंदकर विचारमग्न हुए। इस प्रकार राक्षसों द्वारा की गई सारी दुर्दशा को समझ ब्रह्मा जी, जो बडे़ तेजस्वी थे, मन को आनन्द देने वाले वचन कहने लगे। ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे मुनियों। राक्षसों से तो स्वर्ग में रहने वाले देवता को भी भय लगता रहता है। फिर मनुष्यों का तो कहना ही क्या, जो बुढापे और मृत्यु के दुखों में लिप्त रहतें हैं। सुनों । उन राक्षसों को नष्ट करने में महातेजस्वी विश्वकर्मा ही हैं जो सब प्रकार के बलों से युक्त और सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की पूजा से तुम लोग राक्षसों को नष्ट करने मे समर्थ हो सकते हो। इस वास्ते उसी दयालु विश्वकर्मा की शरण में जाओ। देवताओं को हवि के पहुंचाने वाला अग्नि नामक देवता संसार में प्रसिद्ध है, उसी का पुत्र यज्ञों में श्रेष्ठ पुरोहित होता हैं। अगिरा उसका नाम है और सब मुनियों में श्रेष्ठ है। वही आपको दुखों से पार कर देगा इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिए हे मुनियों। आप उन्हीं मुनि श्रेष्ठ के चरण कमलों को छुओ और उन्हीं से अपने को कष्टों से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना करो।

सूत जी बोले कि ब्रह्मा जी के कथन के अनुसार ऋषियों नें सब यज्ञ अनुष्ठान आदि किए और अंगिरा ऋषि के वचनों को सुनने के लिए उत्सुक हुए। अंगिरा ऋषि कहने लगे कि हे मुनियों। तुम लोग क्यों इधर-उधर मारे-मारे फिरते हो? दुखों को काटने में विश्वकर्मा के अतिरिक्त और कोई भी समर्थ नहीं, इसलिए तुम्हें चाहिए कि जितेन्द्रिय रहते हुए अमावस्या के दिन अपने साधारण कर्मों को रोक कर भक्ति पूर्वक विश्वकर्मा की कथा सुनो। जिसके सुनने मात्र से जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। मुनि लोग ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हो विश्वकर्मा देव की पूजा द्वारा ध्यान करते हुए सब प्रकार के सुखों को प्राप्त करतें हैं। सूत जी कहने लगे कि मुनि लोग इस प्रकार महर्षि अगिंरा के वचनों को सुनकर अपने-अपने आश्रामों को चले गये और यज्ञ में विश्वकर्मा देव का पूजन किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसकी पूजा से सारे राक्षस भस्म हो गए। यज्ञ विघ्नों से रहित हो गए तथा नाना प्रकार के सुखों से सम्पन्न हो गए। जो मनुष्य भक्ति पूर्वक विश्वकर्मा का चिन्तन करता है वह सुखों को प्राप्त करता हुआ संसार में बडे़ पद को प्राप्त करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का पांचवां अध्याय समाप्त।

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छठवां अध्याय

सूत जी बोले - हे मुनियों, मैं आपसे सब लोकों में विख्यात श्री विश्वकर्मा का महात्म्य फिर कहता हूँ तुम ध्यान से सुनों। उज्जैन नगरी में एक सर्वश्रेष्ठ धर्म तत्पर, उदार, धनंजय नामक सेठ था। उस सेठ का कोष (खजाना) लाल मोती, हीरे-जवाहरातों से ऐसा भरा था जैसा कुबेर का भण्डार भरा हो। विवाह, व्यवहार, अभियोग, रोग संकट में प्रत्येक मनुष्य उसके धन का उपयोग किया करता था। उपकार में लगे हुए इस सेठ का धन क्षीण हो गया और वह ऐसा दुख पाने लगा जैसा कीचड में फँसा हुआ हाथी दुःखी होता है। उस सेठ की यह प्रबल आशा थी, कि पूर्व उपकार किए मेरे मित्र मेरी अवश्य सहायता करेंगे। परंतु उसकी आशा व्यर्थ हुई और उन कृतघ्न मित्रों में कोई भी उसके उपकार के लिए समर्थ नहीं हुआ। उसके मित्र क्षणमात्र में शत्रु हो गए और वे उपकृत मित्र ही सर्वप्रथम उस सेठ की निन्दा करने लगे। उसके वे पुराने मित्र अपनी दृष्टियों को छिपा-छिपा कर निकल जाते थे, बात तो यह है कि स्वार्थी मित्र विपत्ति में साथी नहीं हुआ करते हैं।

इस नीच वृत्ति से उस धनंजय सेठ को एक बारगी ही संसार से विरक्ति और मनुष्यों से घृणा उत्पन्न हो गई। वह अपने नगर को छोड़कर और कृतघ्नों के मुख पर थूक कर वन को चला गया। कन्द, मूल, फल आदि से प्रयत्नपूर्वक अपनी वृत्ति करता था और मनुष्य मात्र को देख कर दूर भाग जाता था। एक बार घूमते हुए सेठ ने पर्वत की गुफा में पद्मासन बांधे शांत, लोगों से व्याप्त, लोमश मुनि को देखा। उस धनंजय ने उस मुनि को केशों से व्याप्त देख कर पशु समझा और कौतूहल (तमाशा) की इच्छा से उसके पास अच्छी तरह बैठ गया, मुनि ने पास बैठे हुए धनंजय से पूछा - हे महात्मन् कुशल तो है, कहां से पधारे हो। उस धनंजय ने इस पशु को मनुष्य के समान बोलता देख कर बड़ा अचम्भा किया और प्रारम्भ से अपना सारा वृतान्त उस ब्रह्मर्षि को सुनाया।

यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ धनंजय से बोले - यदि तुझे पापी कृतघ्नों से घृणा है, तो तू कैसे विश्वकर्मा से विमुख हो रहा है। हे श्रेष्ठिन्, सब सुखों के भोगने की शक्ति वाले तुझ को उसी विश्वकर्मा ने बनाया है। वह विश्वकर्मा को भूल जाने से कैसे सुख मिल सकता है। नास्तिक कृतघ्न उपकार को तब ही भूलता है जब वह प्रथम परमेश्वर को भूल जाता है, इसलिए तू अद्भुत शक्ति वाले विश्वकर्मा की शरण को प्राप्त हो। ऊर्ध्वमूल जगत् के कारण उस विश्वकर्मा के नानारूप है। कोई रूप द्विबाहु, कोई चतुर्बाहु और कोई दसबाहु का है। इसी प्रकार एकमुख, चतुर्मुख और पंचमुख के रूप है। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ विश्वकर्मा के साकार रूप के पुत्र हैं। सेतुबंध के समय श्री राम जी ने भी श्री विश्वकर्मा का पूजन किया है। श्री कृष्ण ने द्वारका रचना के समय श्री विश्वकर्मा की पूजा की है। इसी से वे भी द्वारका जैसी सुदंर पुरी की रचना कर सके हैं।

हे धनंजय, तू भी उसी श्री विश्वकर्मा का पूजन और वंदन कर। इस प्रकार सब दुखों से छूट कर सब सिद्धि प्राप्त करेगा। इस प्रकार उस लोमश ऋषि का उपदेश सुनकर उस श्रेष्ठी को बड़ा संतोष हुआ और उस दिन से ही लेकर वह श्री विश्वकर्मा का भक्त हो गया। उन श्री विश्वकर्मा जी के पूजन से उसके समस्त पाप नष्ट हो गए और अन्त में वह देवता बन कर सुख स्वर्ग भोगने लगा। जो मनुष्य भक्ति युक्त चित्त से श्री विश्वकर्मा का ध्यान करता है वह सुखी होकर श्री विश्वकर्मा जी के चरण कमलों का भक्ति प्राप्त करता है। श्री विश्वकर्मा जी का यश बडा पवित्र है, उसको जो तत्वज्ञ मनुष्य सुनता है वह पृथ्वी पर सब सुखों को प्राप्त करके अन्त में श्री विश्वकर्मां जी के शाश्वत पद को प्राप्त करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का छठवां अध्याय समाप्त।

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सातवां अध्याय

ऋषि कहने लगे, भगवान विश्वकर्मा की पवित्र कथा को श्रवणकर हमको बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई है। अब आगे और सुनना चाहते हैं। चित्त में उद्वेग होने पर क्या करना चाहिए, दरिद्र किस प्रकार नष्ट होता है, मृतवत्सा अर्थात जिस स्त्री के उत्पन्न होकर बच्चा मर जाता है उसकी शान्ति का क्या उपाय है ? हे तपोधन, पहिले जन्म में किये गये पाप इस जन्म में फल देते हैं। रोग, दुर्गति, अभीष्ट वस्तुओं का नाशक और समस्त पीड़ाओं के हरण करने वाले भगवान विश्वकर्मा के पूजन को कहता हूँ। दूध पीने वाले छोटे बालकों तथा तरूण बालकों का मरना मृतवत्सा स्त्री का शान्ति के लिए और चित का वैकल्प दूर करने के लिए भगवान विश्वकर्मा का पूजन करना चाहिए।

प्राचीन काल में रथन्तर कल्प में एक दन्तवाहन नाम का राजा हुआ। वह सूर्य के समान प्रभावशाली लोकों में प्रसिद्ध था। उसी का कृतवीर्य नाम का एक प्रतापी पुत्र हुआ जो सातों द्वीपों पर्यन्त पृथ्वी पर शासन करता था। उस राजा के 11 पुत्र पूर्व जन्म में किये पाप के वश पैदा होते ही नष्ट हो गये, तब तो रानी शोक करती हुई पृथ्वी पर पछाडे़ खाती हुई रूदन करने लगी और राजा से बोली कि मैं अपने यौवन को नष्ट करके पुत्रहीन कैसे धैर्य धारण करूं। तब राजा अपनी स्त्री को सन्तोष दिला कर गुरू के घर गया और प्रणाम कर बोला - हे भगवन मेरे पुत्र होकर मर जाते हैं, यह किस देन की मुझसे अवहेलना होती है सो कहिए, क्योंकि दिन–रात उत्पन्न हुए पुत्रों को याद करके रानी बहुत रूदन करती है और धैर्य धारण नहीं करती है।

गुरू बोले- हे राजन, अब बहुत शोक मत करो, तुम्हारे एक वंश को बढ़ाने वाला चिरंजीवी पुत्र होगा। देवों के देवेश भगवान् विश्वकर्मा का पूजन करो, उनके प्रसन्न होने पर अवश्य फल सिद्धि होगी, उनकी पूजा के आगे अन्य देवों की पूजा से क्या? तब राजा ने धर्म से दृढ़ होकर अपनी पत्नी सहित भगवान् विश्वकर्मा का पूजन किया। वस्त्र आभूषणों से ब्रह्मणों को सन्तुष्ट किया। तब भगवान विश्वकर्मा के प्रसन्न होने पर उसकी स्त्री ने गर्भ धारण किया और दसवें महीने में सुन्दर से पुत्र को जन्म दिया। तभी से वह विश्वकर्मा का महीने-महीने में पूजन करने लगा। अन्त में वैकुण्ठ को गया। मृतवत्सा को शक्ति के लिए चित का भ्रम होने पर विश्वकर्मा प्रभु का अर्चन करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य की इच्छायें पूर्ण होती है। दरिद्रता का नाश, बाल पीडा और दुःस्वप्न का भय नहीं होता।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्म्य का सातवां अध्याय समाप्त।

श्री विश्वकर्मा चालीसा

 दोहा - श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान।

       श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान।।


   जय श्री विश्वकर्म भगवाना। जय विश्वेश्वर कृपा निधाना।।

   शिल्पाचार्य परम उपकारी। भुवना-पुत्र नाम छविकारी।।

   अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर। शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर।।

   अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता। सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता।।

   अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं। कोइ विश्व मँह जानत नाही।।

   विश्व सृष्टि-कर्त्ता विश्वेशा। अद्रभुत वरण विराज सुवेशा।।

   एकानन पंचानन राजे। द्विभुज चतुर्भुज दशभुज साजे।।

   चक्रसुदर्शन धारण कीन्हे। वारि कमण्डल वर कर लीन्हे।।

   शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा। सोहत सूत्र माप अनुरूपा।।

   धमुष वाण अरू त्रिशूल सोहे। नौवें हाथ कमल मन मोहे।। 

   दसवाँ हस्त बरद जग हेतू। अति भव सिंधु माँहि वर सेतू।।

   सूरज तेज हरण तुम कियऊ। अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ।।

   चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका। दण्ड पालकी शस्त्र अनेका।।

   विष्णुहिं चक्र शुल शंकरहीं। अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं।।

   इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा। तुम सबकी पूरण की आशा।।

   भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये। सतपथ को प्रभु सदा बचाये।।

   अमृत घट के तुम निर्माता। साधु संत भक्तन सुर त्राता।।

   लौह काष्ट ताम्र पाषाना। स्वर्ण शिल्प के परम सजाना।।

   विद्युत अग्नि पवन भू वारी। इनसे अद् भुत काज सवारी।।

   खान पान हित भाजन नाना। भवन विभिषत विविध विधाना।।

   विविध व्सत हित यत्रं अपारा। विरचेहु तुम समस्त संसारा।।

   द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका। विविध महा औषधि सविवेका।।

   शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला। वरुण कुबेर अग्नि यमकाला।।

   तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ। करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ।।

   भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका। कियउ काज सब भये अशोका।।

   अद् भुत रचे यान मनहारी। जल-थल-गगन माँहि-समचारी।।

   शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही। विज्ञान कह अतंर नाही।।

   बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा। सकल सृष्टि है तव विस्तारा।।

   रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा। तुम बिन हरै कौन भव हारी।।

   मंगल-मूल भगत भय हारी। शोक रहित त्रैलोक विहारी।।

   चारो युग परपात तुम्हारा। अहै प्रसिद्ध विश्व उजियारा।।

   ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता। वर विज्ञान वेद के ज्ञाता।।

   मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा। सबकी नित करतें हैं रक्षा।।

   पंच पुत्र नित जग हित धर्मा। हवै निष्काम करै निज कर्मा।।

   प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई। विपदा हरै जगत मँह जोइ।।

   जै जै जै भौवन विश्वकर्मा। करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा।।

   इक सौ आठ जाप कर जोई। छीजै विपति महा सुख होई।।

   पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा। होय सिद्ध साक्षी गौरीशा।।

   विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे। हो प्रसन्न हम बालक तेरे।।

   मैं हूँ सदा उमापति चेरा। सदा करो प्रभु मन मँह डेरा।।

    

   दोहा - करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवरुप।

         श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय बसहु सुरभुप।।

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

आरती विराट विश्वकर्मा भगवान की


ओ3म् जय विश्वकर्मा प्रभु जय विश्वकर्मा । 

शरण तुम्हारी आये हैं, रक्षक श्रुति धर्मा ।।


उमा भवानी शंकर भोले, शरण तुम्हारी आये । 

कुंज बिहारी कृष्ण योगी, दर्शन करने धाये 1।


सृष्टि धर्ता पालन कर्ता, ज्ञान विकास किया । 

धनुष बना छिन माहिं तुमने, शिवाजी हाथ दिया ।।


आठ द्वीप नौ खण्ड स्वामी, चौदह भुवन बनायें । 

पंचानन करतार जगत के, देख सन्त हर्षाये ।।


शेष शारदा नारद आदि देवन की करी सहाई । 

दुर्गा इन्द्र सीया राम ने निज मुख गाथा गाई ।।


ब्रह्म विष्णु विश्वकर्मा तूं शक्ति रुपा। 

जगहितकारी सकंट हारी, तुम जग के भूपा ।।


ज्ञान विज्ञान निधि दाता त्वष्टा भुवन पति । 

अवतार धार के स्वामी तुमने जग में कियो गति ।।


मनु मय त्वष्टा पाँच तनय, ज्ञान शिल्प दाता । 

शिल्प विधा का आदि युग में, तुम सम को ज्ञाता ।।


मन भावन पावन रूप स्वामी ऋषियों ने जाना । 

पीत वसन तन सोहे स्वामी, मुक्ति पद बाना ।।


विश्वकर्मा परम गुरु की जो कोई आरती गावै ।

विश्वप्रताप सन्ताप मिटै, घर सम्पत आवै ।।

श्री विश्वकर्मा भगवान के 108 नाम



ॐ विश्वकर्मणे नमः

ॐ विश्वात्मने नमः

ॐ विश्वस्माय नमः

ॐ विश्वधाराय नमः

ॐ विशवधर्माय नमः

ॐ विरजे नमः

ॐ विश्वेक्ष्वराय नमः

ॐ विष्णवे नमः

ॐ विश्वधराय नमः

ॐ विश्वकराय नमः

ॐ वास्तोष्पतये नमः

ॐ विश्वभंराय नमः

ॐ वर्मिणे नमः

ॐ वरदाय नमः

ॐ विश्वेशाधिपतये नमः

ॐ वितलाय नमः

ॐ विशभुंजाय नमः

ॐ विश्वव्यापिने नमः

ॐ देवाय नमः

ॐ धार्मिणे नमः

ॐ धीराय नमः

ॐ धराय नमः

ॐ परात्मने नमः

ॐ पुरुषाय नमः

ॐ धर्मात्मने नमः

ॐ श्वेतांगाय नमः

ॐ श्वेतवस्त्राय नमः

ॐ हंसवाहनाय नमः

ॐ त्रिगुणात्मने नमः

ॐ सत्यात्मने नमः

ॐ गुणवल्लभाय नमः

ॐ भूकल्पाय नमः

ॐ भूलेंकाय नमः

ॐ भुवलेकाय नमः

ॐ चतुर्भुजय नमः

ॐ विश्वरुपाय नमः

ॐ विश्वव्यापक नमः

ॐ अनन्ताय नमः

ॐ अन्ताय नमः

ॐ आह्माने नमः

ॐ अतलाय नमः

ॐ आघ्रात्मने नमः

ॐ अनन्तमुखाय नमः

ॐ अनन्तभूजाय नमः

ॐ अनन्तयक्षुय नमः

ॐ अनन्तकल्पाय नमः

ॐ अनन्तशक्तिभूते नमः

ॐ अतिसूक्ष्माय नमः

ॐ त्रिनेत्राय नमः

ॐ कंबीघराय नमः

ॐ ज्ञानमुद्राय नमः

ॐ सूत्रात्मने नमः

ॐ सूत्रधराय नमः

ॐ महलोकाय नमः

ॐ जनलोकाय नमः

ॐ तषोलोकाय नमः

ॐ सत्यकोकाय नमः

ॐ सुतलाय नमः

ॐ सलातलाय नमः

ॐ महातलाय नमः

ॐ रसातलाय नमः

ॐ पातालाय नमः

ॐ मनुषपिणे नमः

ॐ त्वष्टे नमः

ॐ देवज्ञाय नमः

ॐ पूर्णप्रभाय नमः

ॐ ह्रदयवासिने नमः

ॐ दुष्टदमनाथ नमः

ॐ देवधराय नमः

ॐ स्थिर कराय नमः

ॐ वासपात्रे नमः

ॐ पूर्णानंदाय नमः

ॐ सानन्दाय नमः

ॐ सर्वेश्वरांय नमः

ॐ परमेश्वराय नमः

ॐ तेजात्मने नमः

ॐ परमात्मने नमः

ॐ कृतिपतये नमः

ॐ बृहद् स्मणय नमः

ॐ ब्रहमांडाय नमः

ॐ भुवनपतये नमः

ॐ त्रिभुवनाथ नमः

ॐ सतातनाथ नमः

ॐ सर्वादये नमः

ॐ कर्षापाय नमः

ॐ हर्षाय नमः

ॐ सुखकत्रे नमः

ॐ दुखहर्त्रे नमः

ॐ निर्विकल्पाय नमः

ॐ निर्विधाय नमः

ॐ निस्माय नमः

ॐ निराधाराय नमः

ॐ निकाकाराय नमः

ॐ महदुर्लभाय नमः

ॐ निमोहाय नमः

ॐ शांतिमुर्तय नमः

ॐ शांतिदात्रे नमः

ॐ मोक्षदात्रे नमः

ॐ स्थवीराय नमः

ॐ सूक्ष्माय नमः

ॐ निर्मोहय नमः

ॐ धराधराय नमः

ॐ स्थूतिस्माय नमः

ॐ विश्वरक्षकाय नमः

ॐ दुर्लभाय नमः

ॐ स्वर्गलोकाय नमः

ॐ पंचवकत्राय नमः

ॐ विश्वलल्लभाय नमः