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दिनांक 10 फरवरी 2025 को श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर रायगंज (उत्तरी), गोरखपुर में प्रथम स्थापना दिवस का आयोजन

मंदिर का इतिहास

महान योगी एवम् संत गुरु गोरक्षनाथ के नाम पर विख्यात हमारे जनपद गोरखपुर का महानगर गोरखपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रमुख महानगर है । नेपाल राष्ट्र हमारे महानगर के उत्तरी छोर पर है। नेपाल राष्ट्र को भारत राष्ट्र से सम्बद्ध करने के लिए गोरखपुर से रेल मार्ग है तथा इस रेल मार्ग से सटे हुए दक्षिण तरफ सड़क मार्ग भी है । दोनों लगभग समानान्तर चल रहे हैं, इन्हीं मार्ग से सटे हुये दक्षिण दिशा में धर्मशाला रेलवे पुल से लगभग 200 मीटर तथा गोरखपुर रेलवे स्टेशन से लगभग एक किलो मीटर की दूरी पर श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर, जटाशंकर स्थित है । 

हमारे पूर्वजों के कथनानुसार वर्ष 1900 के पूर्व हमारे पूर्वज वर्तमान मारवाड़ स्कूल के सामने वर्तमान चौरहिया गोला में एक विशाल इमली के पेड़ के नीचे माह में एकबार रविवार के दिन इकट्ठा होते थे तथा अपनी समस्यायों को साझा करते थे। नागपंचमी के पश्चात आने वाले सोमावार को श्रावणी पूजा का आयोजन करते थे। प्रति  पुत्र (नवजात भी) अथवा प्रति बसुला की दर से अपने चटाई के लोगों से धन लेकर भगवान विश्वकर्मा का पूजा सम्पन्न करते थे तथा भोग प्रसाद समान रूप से प्राप्त करते थे। बसुला एक औजार है, जिसके द्वारा बढ़ई मिस्त्री लकड़ी को आकार देते हैं। चटाई का तात्पर्य इस प्रकार समझना होगा कि बाबा गोरक्षनाथ इस क्षेत्र के घनघोर जंगल में तपस्या किए और उनके तपोबल से यह क्षेत्र निरापद हो गया। यह क्षेत्र मानवों से विकसित होने लगा।  जंगल क्षेत्र होने के कारण लकड़ी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी, अतः आवागमन हेतु  उपयुक्त साधन पालकी (डोली) का निर्माण हमारे पूर्वजों के द्वारा किया जाने लगा। हमारे ये पूर्वज भिन्न-भिन्न स्थानों यथा- भुसावल (महाराष्ट्र), एवं उत्तर प्रदेश के टांडा, गोंडा, अयोध्या, महराजगंज जनपद के पुरन्दरपुर, लजरूआ तथा गोखपुर जनपद के कौड़ीराम आदि से यहां आकर अपने-अपने कुटुम्ब-कुनबों को आकार दिया और इन्हीं  कुटुम्बों-कुनबों का सम्मिलन तथा आपस में समान शिल्प एवं विचारधारा अपना कर आपसी  सामंजस्य बैठाकर  पालकी निर्माण, ईंटा बनाने का सांचा, साबुन बनाने का सांचा, लकड़ी के मकान के लिए शहतीर, कोरो, बड़ेर और धरन आदि बनाकर अपना जीविकोपार्जन करने वाले पारिवारिक लोग एक चटाई के सदस्य कहे गये। सामाजिक एकता और विकास के लिए धर्म का शरण लेना सबसे उपयुक्त उपाय है, अतः हमारे पूर्वजों ने अपने परिश्रम, मृदु व्यवहार तथा अपने त्याग और  समर्पण के बल  पर इसी स्थान का चयन कर इस क्षेत्र के जंगल को काट-छांट कर शिल्प देवता विश्वकर्मा भगवान का मंदिर बनाने के उपयुक्त कर प्राप्त कर लिया। इस मंदिर के दक्षिणी किनारे पर एक मनोरम सरोवर भी  स्थित है। सरोवर और इस मंदिर क्षेत्र के बीच एक पगडंडी भी रही है तथा अन्य  मंदिर भी आस-पास श्रद्धा के केन्द्र बने हुए हैं। नागपंचमी एवं सावन के दिनों में सरोवर तथा अन्य मंदिरों में भक्तों की  उपस्थिति भी देखने योग्य है। पूर्व दिशा में भी एक पगडंडी रही है, पश्चिम दिशा में इस समय भी प्रवेश का सुगम मार्ग है। इस मंदिर के उत्तर दिशा में रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग भी विकसित हो चुका है। वर्तमान में इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक दक्षिण मुखी हनुमान जी का मंदिर, एक धर्मशाला, पूर्व-उत्तर कोण पर गुरुद्वारा, पश्चिम दिशा में आगे बढ़ने पर मनोरम एवं अध्यात्म से जुड़ा सरोवर सूर्यकुण्ड, उत्तर दिशा में आगे बढ़ने पर श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर, मानसरोवर है तथा उसके पश्चात श्री गुरु गोरक्षनाथ का मंदिर स्थित है जो कि श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर, जटाशंकर के पुरातत्व महत्व को दर्शाता है तथा इसका सौन्दर्यीकरण समय की मांग है, निश्चित ही यह कार्य इस महानगर के पर्यटन क्षेत्र में विकास की एक कड़ी होगी। भगवान विश्वकर्मा के इस मंदिर के आस-पास के वरिष्ठ नागरिक, हमारे पूर्वज तथा आस-पास के पूर्वजों के मतानुसार वर्ष 1902-1903 में मंदिर के निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ था, जो रुक-रुक कर चला। वर्ष 2006 से मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा, जिसमें वर्ष 1905 मार्का की ईंटे भी हुई हैं, जिसके आधार इसकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। इस प्रकार हम गर्व के साथ कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए यह धरोहर बड़ी परिश्रम से सैकड़ों वर्ष पूर्व संजोया है। मंदिर में इस समय जो काशीनाथ बाबा का स्थान है, वह उस समय भी स्थित था और हम इसे अपने कुल देवता के रूप में पूजते आ रहे हैं। हमारे पूर्वजों के कथनानुसार वर्ष 1900 के पूर्व ही इस स्थान पर बैठक, पूजा-अर्चना का कार्य प्रारम्भ हुआ था। वर्ष 1932 में इस मंदिर का रूप आकार ले लिया था और इसी वर्ष 20 मार्च 1932 (फाल्गुन सुदी त्रयोदशी (शुक्ल) सम्वत् 1988) को भगवान विश्वकर्मा की अष्टधातु की विशाल मूर्ति बड़े ही धूम-धाम, हाथी-घोड़ों, गाजा-बाजा व श्रद्धा के साथ नगर की परिक्रमा कराने के उपरान्त मंदिर में निर्दिष्ट स्थान पर स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा कराई गई। 

अष्टधातु की मूर्ति के ढलाई का काम ढलाई विधा में पारंगत कुशल शिल्पकारों के द्वारा तथा स्व. भगवती प्रसाद शर्मा, रायगंज दक्षिणी, स्व. विन्ध्यवासिनी शर्मा,  बड़े काजीपुर, स्व. श्याम लाल शर्मा, खुर्रमपुर एवं आस-पास के सजातीय भाईयों के देख-रेख एवं सहयोग से स्व. बचाऊ शर्मा, रायगंज उत्तरी के गृह प्रांगण में हुआ था। रामायण युगीन वास्तुविद् शिल्पी नल-नील की अष्टधातु की मूर्ति स्व. कीरत चन्द शर्मा, बनकटीचक के परिवार से प्राप्त हुई  है। इस समाज के क्रिया-कलापों को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए तथा एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए एक समिति का गठन होता रहा है तथा मंदिर में भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा होने के उपरान्त भगवान विश्वकर्मा की पूजा आदि को निर्बाध गति से संचालित करने का दायित्व भी यही समिति करती आ रही है। स्व. गोबर्धन शर्मा भगत के समय तक मंदिर में पूजा एवं देख-रेख आदि की व्यवस्था अपने ही चटाई के लोग किया करते थे। भगत जी के मरणोपरान्त स्व. पं. रामलगन मिश्रा तथा उनके मरणोपरान्त स्व. बुद्धु लाल शर्मा तथा उनके बाद 
पं. अम्बिका पांचाल द्वारा भगवान विश्वकर्मा की पूजा की गई। वर्तमान में पं. अम्बिका पांचाल जी के पुत्र पं. रामप्रसन्न विश्वकर्मा जी के द्वारा भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जा रही है। 

भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति की स्थापना के पश्चात इस मंदिर समिति द्वारा महिलाओं तथा बालिकाओं को सिलाई-कढ़ाई  का  निःशुल्क  प्रशिक्षण दिया जाने लगा तथा जनपद के दूर-दराज से आजीविका के लिए आने वाले शिल्पकारों के लिए रात्रि विश्राम के लिए निःशुल्क व्यवस्था भी इसी मंदिर परिसर में की जाती रही है। सरकारों द्वारा कोई सुविधा न मिल पाने के कारण तथा उपेक्षा, धनाभाव अथवा अशिक्षा के कारण ये जन कल्याणकारी योजनायें फलीभूत न हो पाई। फलतः इन्हें बन्द कर देना पड़ा।
 
श्री पवन बथवाल जी ने अपने चेयरमैनशिप के काल में इस मंदिर को नियमानुसार कर-मुक्त कर दिया तथा धर्मशाला से दुर्गावाड़ी मोड़ तक सडक का नाम विश्वकर्मा मंदिर मार्ग किया। इस कार्य में श्री राजेन्द्र शर्मा, तत्कालीन पार्षद एवं निवर्तमान मेयर, इस मंदिर के पदाधिकारीगण तथा नगर पालिका के पदाधिकारियों ने अकथनीय प्रयास किया। वर्ष 1994-95 में इस मंदिर का पंजीकरण भी कराया जा चुका है, जिसका पंजीयन संख्या 1722/1994-95 है।

भगवान विश्वकर्मा के इस मंदिर के बढ़ते प्रभाव के कारण सरकार का भी ध्यान होना प्रारम्भ हो गया और इस मंदिर प्रांगण में पुस्तकालय एवं विश्रामालय के लिए दो हाल सरकारी रुचि के साक्ष्य हैं। वर्ष 2006 से इस मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य दान एवं ऋण के माध्यम से किया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप शौचालय, स्नानगृह एवं शुद्ध पीने का पानी आदि की व्यवस्था की गई है। इस मंदिर प्रांगण में आंबले का वृक्ष है, जिसके कारण श्रावण माह में भक्तों का समूह अमृत वृक्ष के नीचे भोजन कर लाभान्वित होते हैं। पानी एवं शौचालय आदि की व्यवस्था हो जाने के कारण भक्तगण धार्मिक एवं सामाजिक कार्य यहां सम्पन्न करते हैं तथा दान दे कर मंदिर के जीर्णोद्धार के कार्य में सहयोग कर रहे हैं।
 
श्री विश्वकर्मा मंदिर महानगर का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। यहां समाज के सभी वर्गों के श्रद्धालु आते हैं। यह वास्तव में गोरखपुर के शिल्पी समाज की प्रमुख प्रेरणा स्थली है जहां से भगवान विश्वकर्मा का आशीर्वाद लेकर श्रद्धालु सामाजिक कार्य में सर्वस्व अर्पण करते हैं। यह मंदिर श्री गोरक्षनाथ मंदिर की परिधि में स्थित होने के कारण विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। धर्मशाला क्षेत्र में धार्मिकता को बनाये रखने में इस मंदिर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

श्री विश्वकर्मा पंचायत मंदिर समिति का प्रयास है कि इस मंदिर को भव्य रूप दिलाया जाय जिससे श्री गुरु गोरक्षनाथ मंदिर में आने वाले अपार श्रद्धालुओं में शिल्प एवं शिल्पकारों के प्रति जिज्ञासा बढ़े, प्रदेश के पर्यटन के क्षेत्र में दृढ़ता आए तथा शिल्प के बढ़ते प्रभाव के कारण देश एवं प्रदेश के राजस्व में वृद्धि हो। साथ ही साथ बढ़ती बेरोजगारी में व्यवसाय का मार्ग प्रशस्त हो। मंदिर मार्ग पर स्थित होने के कारण इसके पर्यटकीय महत्व को बढ़ाया जाना है। समाज का मार्ग प्रशस्त करने वाले शिल्पदेव भगवान विश्वकर्मा का यह मंदिर गोरखपुर की सांस्कृतिक-धार्मिक धरोहर भी है। अतः इसे धार्मिक पर्यटन केन्द्रों में सम्मिलित किया जाना है ।

इस संक्षिप्त एवं प्रामाणिक इतिहास के साथ इस मंदिर के संचालन समिति के तत्कालीन सदस्यों एवं पदाधिकारियों की आद्योपांत सूची देखी जा सकती है ।

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